उत्तराखंड के पहाड़ों में आज हजारों युवा ऐसे हैं, जिनकी उम्र तीस पार हो चुकी है, लेकिन उनकी जिंदगी एक अजीब ठहराव में फंसी हुई है।
वे न पढ़ाई में पीछे हैं, न मेहनत में। कोई खेती कर रहा है, कोई छोटे काम से परिवार चला रहा है, तो कोई मां-बाप की जिम्मेदारी निभा रहा है।
इसके बावजूद शादी की बात आते ही उन्हें खुद को ‘कमतर’ महसूस कराया जाने लगता है।
यह सिर्फ कुंवारे रहने की कहानी नहीं है। यह उस मानसिक दबाव की कहानी है, जब कोई युवा खुद से पूछने लगे-
पहाड़ में आज शादी की बातचीत उत्साह से नहीं, बल्कि संकोच और भीतर के तनाव से शुरू होती है। कई युवक रिश्ते की पहल करने से इसलिए बचते हैं, क्योंकि उन्हें अंदाजा होता है कि यह बातचीत जल्द ही एक परीक्षा का रूप ले लेगी।
पहला सवाल लगभग तय होता है-‘कहां रहते हो?’
जवाब अगर गांव का हो, तो अगला सवाल तुरंत सामने आ जाता है-‘शहर में घर है क्या?’
इसके बाद बातचीत सवालों से ज्यादा शर्तों की सूची बन जाती है।
• सरकारी नौकरी न हो, तो रिश्ता आगे नहीं बढ़ता।
• निजी नौकरी का पैकेज कम हो, तो भविष्य असुरक्षित माना जाता है।
• लड़की गांव में नहीं रहेगी, शहर में घर या स्थायी ठिकाना बताना होता है।
इस पूरी प्रक्रिया में शायद ही कोई यह जानने की कोशिश करता है कि युवक क्या काम करता है, किन हालात में जीवन चला रहा है या किस मानसिक दबाव से गुजर रहा है। धीरे-धीरे उसे समझ आने लगता है कि उसकी मेहनत या जिम्मेदारी नहीं, बल्कि उसकी लोकेशन और आय तय करेंगी कि वह शादी के योग्य माना जाएगा या नहीं।
लड़कियों की शर्तें और उनके पीछे का डर
इस तस्वीर का दूसरा पक्ष भी उतना ही अहम है। पहाड़ की लड़कियां और उनके परिवार शर्तें रखते जरूर हैं, लेकिन अधिकतर मामलों में यह शर्तें लालच से नहीं, बल्कि असुरक्षा के अनुभवों से जन्म लेती हैं।
बातचीत में आमतौर पर ये अपेक्षाएं सामने आती हैं :
• लड़का देहरादून, हरिद्वार, कोटद्वार, हल्द्वानी, दिल्ली या किसी बड़े शहर में रहता हो।
• सरकारी नौकरी में हो या निजी क्षेत्र में स्थिर और बेहतर पैकेज पाता हो।
• शहर में अपना घर या पक्की बसाहट हो।
• शादी के बाद गांव या संयुक्त परिवार में रहने की मजबूरी न हो।
• बच्चों की पढ़ाई और स्वास्थ्य सुविधाएं पास में उपलब्ध हों।
लड़कियों और उनके माता-पिता का तर्क सीधा है। गांवों में अस्पताल दूर हैं, स्कूल कमजोर हैं और आपात स्थिति में सहारा समय पर नहीं मिलता।
कई परिवार अपने आसपास गर्भवती महिलाओं की मौत, इलाज में देरी और बच्चों की पढ़ाई छूटने जैसी घटनाएं देख चुके हैं। इन्हीं अनुभवों ने गांव को रिश्तों की बातचीत में जोखिम के रूप में खड़ा कर दिया है।
पहाड़ का युवा गांव में रहना चाहता है, लेकिन लड़की पक्ष के लिए गांव अब सिर्फ दूरी नहीं, असुरक्षा का प्रतीक बन चुका है। खेती, बागवानी, डेयरी और स्वरोजगार जैसे काम, जो कभी सम्मान का आधार थे, अब शादी के लिए पर्याप्त नहीं माने जाते।
युवाओं को सबसे ज्यादा यह बात तोड़ती है कि जिस गांव ने उन्हें पाला और पहचान दी, वही आज उनकी शादी में सबसे बड़ी बाधा बन गया है।
पहाड़ों में रोजगार पहले ही सीमित है। पहले सेना युवाओं का सबसे भरोसेमंद विकल्प थी। लेकिन अग्निवीर योजना के बाद चार साल की अनिश्चितता रिश्तों की बातचीत में सबसे बड़ा सवाल बन गई है-
‘चार साल बाद क्या करोगे?’
इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं होता, लेकिन इसका बोझ युवक पर ही डाल दिया जाता है। कई युवाओं के रिश्ते इसी अनिश्चित भविष्य के कारण अटक रहे हैं।
रानीखेत का एक युवक कहता है कि ‘खेती करता हूं, कमा भी लेता हूं, लेकिन शादी की बात आते ही मुझे बेरोजगार समझ लिया जाता है।’
पौड़ी गढ़वाल के केष्टा गांव का युवक का दर्द भी ऐसा ही है। वह बताता है कि ‘मां बीमार रहती है, गांव छोड़ नहीं सकता। लेकिन गांव में रुकना ही मेरी सबसे बड़ी गलती बन गई।’
बार-बार ठुकराए जाने के बाद कई युवाओं ने रिश्ते की बात छेड़नी ही बंद कर दी है। यही चुप्पी सबसे खतरनाक बनती जा रही है।
जब पहाड़ में इन शर्तों पर कोई रिश्ता नहीं बनता, तो कुछ परिवार नेपाल और बिहार जैसे इलाकों की ओर देखने लगे हैं। वहां शादी तय करते समय शहर, पैकेज या सरकारी नौकरी अनिवार्य नहीं होती। कई युवा तो नेपाल और बिहार से अपनी दुल्हनिया ले भी आएं हैं।
यह फैसला खुशी से नहीं, थकान और मजबूरी में लिया जा रहा है। भाषा और संस्कृति की चुनौतियों के बावजूद युवा कहते हैं-‘कम से कम वहां इंसान की तरह तो देखा जाता है।’
पहााड़ में पलायन के कारण अब सिर्फ रोजगार नहीं रहे। शादी न होना भी एक बड़ा कारण बनता जा रहा है।
बेटे की शादी के लिए परिवार गांव छोड़ रहे हैं।
• जमीन बिक रही है, गांव खाली हो रहे हैं।
• शादी की मजबूरी में शहर बसना समाधान बनता जा रहा है।

