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शास्त्र मत के अनुसार बताया जाता है कि मान्यता के अनुसार जो हमारे पूर्वज अपनी देह का त्याग कर देते है, उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में तर्पण किया जाता है, इस क्रिया को श्राद्ध भी कहा जाता है, श्राद्ध का अर्थ होता है, श्रद्धा पूर्वक, माना जाता है कि पितृ पक्ष यानि श्राद्ध के दिनों में मृत्युलोक के देवता यमराज पूर्वजों की आत्मा को मुक्त देते हैं, ताकि वे अपने परिजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें, ज्योतिष शास्त्र के अनुसा पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण करने से पितृ दोष दूर होता है।

जिस व्यक्ति की जन्म कुंडली में पितृ दोष होता है उसे जीवन में परेशानियों का सामना करना पड़ता है, मान सम्मान प्राप्त नहीं होता है, धन की बचत नहीं होती है, रोग और बाधाएं उसका पीछा नहीं छोड़ती हैं, इसलिए पितृ पक्ष में पितरों का तर्पण और मोक्षनगरी गयाजी में पिंडदान करने से पितृ दोष दूर होता है और परेशानियों से मुक्ति मिलती है।

पितर पक्ष में अपने पितरों के लिए श्रीमद्भागवत कथा का पाठ भी कराये, भागवत जी के पाठ से भी पितर प्रशन्न होते है धनधान्य, सुख शांति का आशीर्वाद देते हैं। पितर पक्ष में पितर गायत्री, त्रिपिंडी श्राद,नारायणबलि श्राद्ध गयाजी में पित्रदोष पूजा दान यह कार्य शुभ रहते है।

शास्त्रो मे मनुष्यो के लिए तीन प्रकार के ऋण कहे गये है, देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण ।

पितृऋण का अर्थ है, अपने दिवंगत माता-पिता तथा अन्य पूर्वज, जिनके द्वारा हमने दुर्लभ मनुष्य योनि मे जन्म लिया। अपने उन पूर्वजो के निमित्त फर्ज या कर्तव्य को ही पितृऋण क्हा जाता है।

शास्त्रानुसार माना जाता है कि चौरासी लाख योनियों मे जन्म लेने, या भटकने के पश्चात ही हमे सबसे उत्तम मनुष्य योनि प्राप्त होती है।

पितृऋण को कई अलग-२ प्रकार से चुकाया जाता है, जिसमे से पितृपक्ष यानि कनागत अथार्त पितृपक्ष के इन पंद्रह दिनो के दौरान श्राद्ध कर्म, पितृरो के ऋण चुकाने का एक मुख्य तथा महत्वपूर्ण कर्म है । प्रतिवर्ष साल मे एक बार, अश्विन मास कृष्णपक्ष के पंद्रह दिनो मे लिए पितृपक्ष/श्राद्ध) आते है, इन दिनो मे, जिन माता-पिता अथवा पूर्वजों ने हमे पैदा किया, जीवन दिया हमारी आयु, आरोग्यता, शिक्षा तथा सुख-सौभाग्य के लिए अनेकों प्रकार के दुखो को झेला, उन पूर्वजो के ऋणो से मुक्त होने पर ही मनुष्य का जीवन अथवा जन्म सार्थक होता है।

माता- पिता तथा अन्य बडो की सेवा प्रत्येक मनुष्य को जीवनभर करनी ही चाहिये, शास्त्रो मे क्हा गया है कि :-

पिता धर्मः पिता स्वर्गः 

पिता ही परमं तपः।

पितिरिम प्रीतिमापन्ने 

प्रीयन्ते सर्वदेवता ॥

अथार्त पिता ही धर्म है, पिता ही स्वर्ग है और पिता निश्चय ही सबसे बडी तपस्या भी है, पिता के प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण देवता भी प्रसन्न हो जाते है, जिस संतान की सेवा से माता-पिता संतुष्ट होते है उस संतान को गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है । 

माता समस्त तीर्थो के समान है और पिता सम्पूर्ण देवताओं के स्वरूप है, इसलिए हर प्रकार से माता-पिता की आजीवन सेवा के उपरांत उनकी मृत्यु के पश्चात भी उनके निमित्त श्राद्ध और तर्पण करना भी परमधर्म है।

ब्रह्म वैवर्त पुराण और मनुस्मृति में ऐसे लोगों की घोर भत्र्सना की गई है जो इस मृत्युलोक (पृथ्वीलोक) में आकर अपने पितरों को भूल जाते हैं और सांसारिक मोहमाया, अज्ञानतावश अथवा संस्कार हीनता के कारण अपने दिव्य पितरों को याद नहीं करते है।

अपने पितरों का तिथि अनुसार श्राद्ध करने से पितृ प्रसन्न होकर अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देते हैं। साथ ही धन धान्य, पुत्र-पौत्र तथा यश प्रदान करते हैं। श्राद्ध चंद्रिका में कर्म पुराण के माध्यम से वर्णन है कि मनुष्य के लिए श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याण कर वस्तु है ही नहीं।

इसलिए हर समझदार मनुष्य को पूर्ण श्रद्धा से श्राद्ध का अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिए। स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में कहा गया है कि श्राद्ध की कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती, अतएव श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

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