कुमाऊं में इस दिन को खतडुवा के रूप में मनाने की परंपरा
पशुधन की कुशलता की कामना का पर्व खतडुवा
खतडुवा का प्रतीकात्मक पुतला
हल्द्वानी। सोमवार को उत्तराखंड में कुमाऊं का प्रमुख लोकपर्व खतडुवा परंपरागत तरीके से मनाया गया। कन्या संक्रांति के अवसर पर मनाए जाने वाले इस पर्व का विशेष महत्व है।
यह पर्व न केवल कुमाऊं, बल्कि गढ़वाल और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी मनाया जाता है।
आश्विन मास में जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं, तो उस दिन को कन्या संक्रांति कहा जाता है।
यह पर्व ऋतु परिवर्तन और पशुधन की रक्षा के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। बच्चों का दल भैल्लौ जी भैल्लौ, गाई की जीत, खतडुवा की हार जैसे लोकगीत गाते हुए, फूलों से सजे पुतले का दहन करते हैं।
पुतले की राख पशुओं के माथे पर लगाई जाती है, जिससे पशुओं की सुरक्षा होने का विश्वास है। इसके बाद पहाड़ी फल ‘काकड़’ या ककड़ी को प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
खतडुवा पर्व पशुओं की रक्षा और उनके कल्याण के लिए समर्पित है। यह पर्व लोकमान्यता और आस्था से जुड़ा हुआ है।
उत्तराखण्ड में प्रारम्भ से ही कृषि और पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत रहा है। जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के कारण व्यापार की संभावनाएं नगण्य थीं, लेकिन कम उपजाऊ जमीन होने के बावजूद कृषि और पशुपालन ही जीवनयापन के प्रमुख आधार थे।
आज भी कृषि और पशुपालन से सम्बन्धित कई पारम्परिक लोक परम्पराएं और तीज-त्यौहार पहाड़ के ग्रामीण अंचलों में जीवित हैं। इन त्यौहारों में हरियाली और बीजों से सम्बन्धित त्यौहार “हरेला” है।
पिथौरागढ में मनाया जाने वाला “हिलजात्रा” एक ऐसा पर्व है, जिसमें कृषि-पशुपालन को विशिष्ट मुखौटों और नृत्यों के साथ मैदान में प्रदर्शित किया जाता है।
पशुधन की प्रचुरता का लुत्फ उठाने का त्यौहार घी-त्यार के रुप में मनाया जाता है, इसी प्रकार से दीपावली के दो दिन के बाद होने वाले “गोवर्धन पूजा” पर गाय-भैंस व बैलों को सजाया जाता है, जो पर्वतीय अंचल के लोगों के पशुप्रेम और उनके प्रति उत्तरदायित्व को दर्शाता है।
इसी प्रकार से भादों (भाद्रपद) के महीने में मनाया जाने वाला “खतड़ुवा” पर्व भी मूलत: पशुओं की मंगलकामना के लिये मनाया जाने वाला पर्व है। कुछ राजनीतिक प्रपंचों और बंटवारे की भावना वाले लोगों ने इस त्यौहार के साथ कई मनगढन्त किस्से जोड़ दिये हैं। जिससे इस पर्व को मनाने का मूल उद्देश्य पीछे छूटता जा रहा है।
खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े. गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरु हो जाता है। यही वक्त है।
जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं।
इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है। इस त्यौहार के दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं।
पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है और उन्हें पकवान बनाकर खिलाया जाता है। पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है. शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है, इसलिये “खतड़ुवा” के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है।
शाम के समय घर की महिलाएं खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करती हैं और पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल (खतड़ुवा) को बार-बार घुमाया जाता है और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को दुख-बीमारी से सदैव दूर रखें।
गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढेर लगाते हैं गौशाला के अन्दर से मशाल लेकर महिलाएं भी इस ,चौराहे पर पहुंचती हैं और इस लकड़ियों के ढेर में “खतड़ुआ” समर्पित किये जाते हैं। ढेर को पशुओं को लगने वाली बिमारियों का प्रतीक मानकर “बुढी” जलायी जाती है।
यह “बुढी” गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानी जाती हैं, जिनमें खुरपका और मुंहपका मुख्य हैं।
इस चौराहे या ऊंची जगह पर आकर सभी खतड़ुआ जलती बुढी में डाल दिये जाते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं-
भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा,
गै की जीत, खतडुवै की हार
भाग खतड़ुवा भाग
अर्थात गाय की जीत हो और खतड़ुआ (पशुधन को लगने वाली बिमारियों) की हार हो।
अपने पशु के साथ उत्तराखण्डी किसान
इसके साथ ही बच्चे पड़ोस के गांववालों को ऊंची आवाजों में उनकी गाय-भैंसों को लगने वाली बीमारियां अपने घर ले जाने के लिये भी आमन्त्रित करते हैं।
इस अवसर पर हल्का-फुल्का आमोद-प्रमोद होता है और ककड़ी को प्रसाद स्वरूप वितरित किया जाता है।
इस तरह से यह त्यौहार पशुधन को स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट बने रहने की कामना के साथ समाप्त होता है।