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नई दिल्ली। हाई कोर्ट ने गुरुवार को दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार और दिल्ली वक्फ बोर्ड को एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई करते हुए नोटिस जारी किया। इस पीआईएल में सराकारी पैसों से इमामों और मुअज्जिनों को वेतन देने की नीति को चुनौती दी गई है।

बार एंड बेंच की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की डिवीजन बेंच ने कहा कि यदि एक संस्था को मदद दी जाती है तो दूसरे धार्मिक संस्थाएं भी आर्थिक मदद मांगने के लिए कल आगे आ सकती हैं।

बेंच ने कहा, ‘यदि यह एक धर्म के साथ किया जाता है तो दूसरे भी आगे आएंगे और कहेंगे कि हमें सब्सिडी दीजिए। क्या कहां खत्म होगा। ये वो लोग नहीं हैं जो राज्य के लिए काम कर रहे हैं।

साउथ इंडिया में या देश के दूसरे हिस्सों में जाइए और आप दखेंगे कि धार्मिक संस्थाएं बड़ी भूमिकाएं निभाती हैं। यदि आप प्राचीन भारत के बारे में पढ़ेंगे पूरी अर्थव्यवस्था मंदिरों के ईर्दगिर्द घूमती है। सभी संस्थाएं समान हैं।’

कोर्ट ने दिल्ली सरकार के वित्त विभाग को भी पक्षकार बनाया और सभी पक्षों को चार सप्ताह के भीतर जवाब देने को कहा है। याचिकाकर्ता वकील रुकमणि सिंह ने कहा कि भारतीय संविधान कहता है कि राज्य को सेक्युलर रहना है तोऔर इसलिए एक धर्म के लोगों को वेतन/मानदेय देने की दिल्ली सरकार की नीति संविधान के खिलाफ है।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील सौरभ कृपाल ने दलील दी कि दिल्ली सरकार की नीति संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 266 और 282 के खिलाफ है क्योंकि एक विशेष धर्म के लोगों को प्राथमिकता दी जा रही है और पैसे दिए जाते हैं।

उन्होंने कहा, ‘आदर्श रूप से किसी धर्म को टैक्सपेयर के पैसे पर सब्सिडी मिलनी चाहिए, यह एक धर्म निरपेक्ष राज्य का मूलभूत सिद्धांत है। यदि पैसे देने हैं तो सिर्फ एक धर्म को क्यों दिया जा रहा है, अन्य को क्यों नहीं?

उन्होंने कलकत्ता हाई कोर्ट के एक फैसले का भी हवाला दिया जिसमें पश्चिम बंगाल की सरकार की इसी तरह की एक स्कीम को बंद कर दिया गया। कृपाल ने जोर देकर कहा कि इमामों और मुइज्जिनों को हर साल 10 करोड़ रुपए दिए जा रहे हैं। कहा कि यह पैसा उन लोगों को भी जा रहा है जो वक्फ बोर्ड से नहीं जुड़े हैं।

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