उत्तराखंड में दिवाली के 11 दिन बाद फिर लोकपर्व ईगास, बग्वाल या बूढ़ी दीपावली’ के रुप में मनाई जाएगी। जिसको लेकर तैयारियां जोर शोर से चल रही है।
इस बार ईगास का पर्व खास है, क्योंकि ईगास के साथ ही उत्तराखंड रजत जयंती वर्ष भी मना रहा है।
25 साल पूरे होने पर उत्तराखंड एक से 9 नवंबर तक स्थापना दिवस भी मना रहा है। उत्तराखंड की संस्कृति और परंपरा सबसे अलग है। यहां साल भर त्यौहार और आयोजनों से लोग एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। ऐसा ही एक खास पर्व है, ईगास।
उत्तराखंड में दिवाली एक माह तक मनाई जाती है। पहले दिवाली के 11 दिन बग्वाल या लोकपर्व ईगास, बग्वाल या बूढ़ी दीपावली’ के रुप में मनाई जाएगी। उसके बाद एक माह के भीतर सीमांत जिले उत्तरकाशी में मंगसीर बग्वाल के रुप में मनाई जाएगी।
इस तरह से उत्तराखंड में दिवाली एक माह तक मनाई जाती है। गढ़वाल में कई सदियों से दीपावली को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है। दीपावली के ठीक 11 दिन बाद गढ़वाल में एक और दीपावली मनायी जाती है, जिसे ‘ईगास’ कहा जाता है। वहीं कुमाऊं के क्षेत्र में इसे ‘बूढ़ी दीपावली’ कहा जाता है।
11 दिन बाद आने वाली एकादशी को पर्व
दीपावली से 11 दिन बाद आने वाली एकादशी को ये पर्व मनाया जाता है। इगास पर्व मनाने के पीछे कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। सबसे प्रचलित मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा।
दीपावली के 11 दिन बाद इगास
इसी बीच बग्वाल दीपावली का त्यौहार भी था, लेकिन इस त्यौहार तक कोई भी सैनिक वापिस ना आ सका। सबने सोचा माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दीपावली नहीं मनाई। दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत वापिस लौट आए। कहा जाता है कि युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी। उस दिन एकादशी होने के कारण इस पर्व को इगास नाम दिया गया और उसी दिन से गढ़वाल क्षेत्र में दीपावली के 11 दिन बाद इगास पर्व मनाया जाता है।
एक माह बाद उत्तरकाशी जिले में मंगसीर बग्वाल
उत्तरकाशी में तिब्बत विजय का उत्सव मंगसीर की बग्वाल कार्तिक दीपावली से एक माह बाद मनाया जाता है। दिवाली पर्व के ठीक एक माह बाद उत्तरकाशी जिले में मंगसीर बग्वाल मनाई जाती है। जो इस साल 29 नवंबर से 1 दिसंबर तक मनाई जाएगी। इस खास बग्वाल में गढ भोज, गढ संग्रहालय के साथ ही रंगारंग कार्यक्रम और विशेष आयोजन किए जाते हैं।
क्या है परंपरा
स्थानीय लोग बताते हैं कि वर्ष 1632 में गढ़वाल नरेश राजा महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बत के दावा घाट में गढ़वाल और तिब्बत की सेना के बीच युद्ध हुआ था। गढ़वाल की ओर से सेनापति लोदी रिखोला और माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना युद्ध लड़ने गई थी।
युद्ध लंबा चलने पर सेना दीपावली तक घर नहीं लौट पाई थी। तब सेनापति माधो सिंह भंडारी ने संदेश भिजवाया था कि तिब्बत पर विजय हासिल कर लौटने के बाद ही बग्वाल मनाई जाएगी। गढ़वाल की सेना दीपावली के ठीक एक माह बाद तिब्बत पर विजय हासिल कर लौटी थी। तभी से मंगसीर की बग्वाल मनाने की परंपरा चली आ रही है।












